चिप बताएगी जूस या केक खाने लायक बचा है या नहीं ? जानिए कैसे ? पूरा लेख पढ़ें |

अतुल भारद्वाज। तो कैसे जानेंगे कि खाना खाने लायक है या नहीं? डिब्बाबंद खाना अब सिर्फ उसकी एक्सपायरी या बेस्ट बिफोर यूज्ड डेट देखकर ही ना खाएं। आने वाले समय में इन खाद्य पदा‌र्थ के बाहर लगी एक चिप यह बता देगी कि डिब्बाबंद खाना खाने लायक बचा है या नहीं? हाल ही में नूडल्स में लेड की अधिक मात्रा और पैक्ड ड्रिंक उत्पादों में जहरीले तत्व मिलने के बाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च (आईआईटीआर) एक नई तकनीक विकसित कर रहा है। इस तकनीक के आने के बाद आम उपभोक्ता भी बिना लैब में जांच किए यह जान सकेगा कि डिब्बाबंद खाना खाने लायक बचा है या नहीं? आईआईटीआर में तैयार हो रहा बायो सेंसर आसानी से बता देगा कि खाना कैसा है, सेफ या अनसेफ। मंगलवार को यूपी की राजधानी लखनऊ में टॉक्सिकोलॉजी पर काम करने वाली देश में सीएसआईआर की अकेली वैज्ञानिक लैब आईआईटीआर के निदेशक डॉ. आलोक धवन ने नई तकनीक की जानकारी दी।उनका कहना था कि खाद्य पदार्थों में तेजी से मिलावटखोरीबढ़ रही है। ऐसे में खाना सुरक्षित नहीं रहा है। पैक्ड फूड भी इसी श्रेणी में हैं। हमारी कोशिश है कि पैक्ड फूडकी पैकिंग पर लगाई जा सकने वाली एक चिपनुमा बायो सेंसर को तैयार किया जाए। हम इसमें काफी हद तक सफल भी रहे हैं।

चल रही है रिसर्चपेटेंट होने से पहले इसका पूरी तरह खुलासा करने से मना करते हुए उन्होंने कहा कि अभी इस पर रिसर्च चल रही है। इसके सकारात्मक परिणाम हमारी वैज्ञानिकों की टीम को मिलरहे हैं। इस तकनीक को विकसित करने केलिए सीएफटीआरआई मैसूर ने प्रयास किए थे लेकिन वहां वैज्ञानिक सफल नहीं रहे।इस रिसर्च पर डॉ. धवन का कहना था कि बायो सेंसर को पैकिंगकेऊपर इस तरह लगाया जाएगा कि यह खाद्य पदार्थ में आ रहे बदलाव की निगरानी करता रहे। एक या अधिक जहरीले तत्व पैदा होने या मानक से ज्यादा होने पर बायोसेंसर संकेत दे देगा।यह संकेत पैकिंग पर प्रदर्शित होंगे जिससे आम ग्राहक भीइसके सेफ या अनसेफ होने से अवगत हो सके। पैक्ड फूड के अलावा यह बायो सेंसर तेल या घी में मिलावट को भी जांचेगा।अभी तक दुनिया भर में ऐसी कोई तकनीक नहीं है। आईआईटीआर इसे जल्दी और न्यूनतम कीमत में देश की सेवा में रिलीज करेगा। इसका सबसे बड़ा फायदा आज तेजी से बढ़ रही पैक्ड फूड की इंडस्ट्री और इसका उपभोग करने वाले लोगों को होगा।

आईआईटीआर तय कर रहा मानकडॉ. धवन का कहना था कि टॉक्सिकोलॉजी पर काम करने के लिए पूरी दुनिया में आईआईटीआर तीसरा संस्थान है। हम पूरे देश केलिए यहां से मानक तय करते हैं। चांदी का वर्क, पानी की शुद्धता, वायु प्रदूषण के लिए हमने मानक तय कराए। यह सिलसिला अब भी जारी है। अब हमारा फोकस नैनोटैक्नोलॉजी से पैदा हो रहे जहरीले तत्वों के मानक तय करने पर है।आईआईटीआर के वैज्ञानिक गंगा को साफ करने के अलावा स्वच्छ भारत अभियान में भी काम कर रहे हैं। डॉ. धवन ने बताया कि नमामि गंगे परियोजना में हमारी टीम नीरी के साथ मिलकर अलग-अलग जगहों से लिए गए गंगा के पानी के नमूनों की जांच कर रही है।गंगा केपानी को खराब होने से बचाने का काम एक खास तरह का बैक्टीरिया करता है। इसकी कमी कई जगह मिली है। एक राउंड की जांच पूरी हो चुकी है। एक सप्ताह पहले ही बैठक नीरी के साथ हुई। अब आगे के चरण की योजना बनाकर वैज्ञानिक जुटे हैं।

हम ऐसी तकनीक विकसित करने की कोशिश में है जिससे गंगा हमेशा साफ बनी रही। जल्दी ही अच्छे परिणाम मिलेंगे।विज्ञान को आज के समय में जनहित से जोड़ना होगा। आईआईटीआर जैसी संस्थाएं इस काम को बखूबी कर सकती हैं। मैं जब यहां निदेशक रहा उस समय कई ऐसी तकनीक विकसित हुईं। ड्रॉप्सी से लेकर उड़ीसा में बाढ़ केदिनों में साफ पानी के लिए तकनीक हमने दी। आज संस्थान लेड जैसे तत्वों को कैसे मापें इसकेलिए बायो सेंसर विकसित कर रहाहै। (डॉ. पीके सेठ, पूर्व निदेशक आईआईटीआर, सीईओ बायोटेक पार्क)

न्यूज़ स्रोत :अमर उजाला लखनऊ(25 अगस्त 2015)

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