हिंदी दिवस स्पेशल आलेख : हिंदी भली विदेश, क्यों चली आई अपने देश शब्द-शिखर में जरूर पढ़े |

गोपाल चतुर्वेदी प्रोफेसर दुखी हैं। जब विश्व भाषा हिंदी का सम्मेलन है, तो पूरी दुनिया पड़ी है आयोजन के लिए, उसे देश में करने की कौन-सी तुक थी? प्रोफेसर, जो पेशेवर हिंदी प्रचारक भी हैं, निराश हैं। अभी तक फोकटिया सेवा से, उपेक्षा व पैसा ही पाया है।

कभी हिंदी की किसी राष्ट्रीय गोष्ठी में आमंत्रित हो लिए, कभी हिंदी दिवस पर किसी संस्थान में। मौखिक परीक्षा लेने गए, तो भाड़े से पैसे बनाए। कॉपी जांची, तो नंबर बढ़ाकर, पीएचडी गाइड की, तो थीसिस लिखवाकर। वह ऐसे मितव्ययी हैं कि कॉलेज की स्टेशनरी तक घर लाकर कागज का खर्च बचाने में उस्ताद हैं। कभी-कभार विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने समर्पित सेवा का इन्हें इनाम भी मिला है, संपर्क जुटाकर, प्रतिनिधि मंडल में नामित होकर। मुफ्त का टिकट, खान-पान, सैर-सपाटा व आवभगत।


 अहम व्यक्तियों के साथ उठने-बैठने, बतियाने, संपर्क बनाने का अवसर रोज-रोज तो आता नहीं, इसके अलावा, स्थानीय हिंदी प्रेमियों से रिश्ता बन जाए, तो दोबारा फ्री ट्रिप का इंतजाम कौन मुश्किल है? कम्बख्तों ने सत्ता में
आकर यह छोटा-सा सुख भी छीन लिया है। इन सिरफिरों को कौन समझाए कि अमेरिका में जो ब्रांडेड सामान बनता है, वही माल भारतीय बाजार में बिकता है। बार-बार सम्मेलन करवाने से हिंदी का ढिंढोरा अमेरिका में पिटता है। वहां चल निकलती, तो भाषायी फैशन बनकर हिंदी हिन्दुस्तान में वैसे ही छाती, जैसे बर्गर व जीन्स। घरेलू तालाब में मेंढक हजारों के सामने टर्राए या अकेले में, फर्क क्या पड़ता है? सरकार को सोचना चाहिए।

शासकीय कामकाज में हिंदी तभी लोकप्रिय हो सकती है, जब गोरे विशेषज्ञ कर्मचारियों को प्रेरित करें। जिन्होंने अंग्रेजी व अंग्रेजियत का जहर दिया है, वही इसकी काट सुझाएं। जब वे कहेंगे कि कालू देश की इस भाषा में सरकारी काम की ही नहीं, तकनीकी- वैज्ञानिक शोध की भी क्षमता है, तो सब हां में मुंडी हिलाएंगे। हमने प्रोफेसर से पूछा कि वह देश के विश्व सम्मेलन में भाग लेंगे कि नहीं? उन्होंने कहा, सैद्धांतिक असहमति के बावजूद निमंत्रण का सम्मान हिंदी सेवक के नाते उनका कर्तव्य है।

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